सुनो महाभारत हम कृष्ण के सिपाही हैं ….


कमलेश लट्टा
प्रधान सम्पादक, मो. 89551 20679

आरोपों की बिजलियां चमकी, फसादों के बादल गरजे, अफवाहों की बारिश हुई, सर्दी से गरमी, गरमी से वर्षा आई और बीत गई पर कोरोना नहीं बीता। आंकड़ों के दण्ड कम से ज्यादा होते रहे और सौ से हजार तथा हजार से लाखों में बदल गए पर उसे खत्म करने का औजार नहीं मिला। लाखों लेबोरेट्री में दिन रात काम करने के बाद भी चीन का यह मारक कोरोना, रिसर्च, ट्रायल दर ट्रायल के बाद भी वैक्सीन की बोतल में वैज्ञानिक रिसर्चर कोरोना के जिन्न को बन्द नहीं कर पाए हैं।
उधर मजदूर के साथ-साथ छोटे व्यापारी, मध्यम वर्ग, कर्मचारी, असंगठित व्यापारी, किसान मंदी के भंवर में उलझते ही जा रहे हैं। मौत दर मौत इन्सान के हौंसलों को अस्त होते हम देख रहे हैं और हम भी दहशत के अन्देशों में डूबने को विवश होते लग रहे हैं। तेजी से खाली होती बैंकें, तिजोरी और सरकार की योजनाएं, बिकते सरकारी संस्थान, बेरोजगार होते हजारों लोग तो खेत में बैठा रोते किसान की मंडी ही नहीं रहेगी तो वो अपना अनाज कहां बेचने जाएगा? कौन दाम तय करेगा? कौन अनाज खरीदेगा? सब कुछ जो सरकारी था बिक कर कोरपोरेट कंपनियों के हाथों में चला जाएगा। जब वे ही लेने लग जाएंगे, सब वही तय करेंगे तो फिर सरकारों का क्या काम रह जाएगा? चुनाव भी क्यों कराने होंगे और चुनाव होंगे भी तो उसका औचित्य क्या होगा?
पिछले एक बरस में हिन्दुस्तान का परिदृश्य पूर्णत: बदल चुका है। जो नहीं चाहते वो सबसे पहले होता है और जो चाहते हैं वो बाद में या फिर होता ही नहीं है। सब कुछ बदला-बदला सा है। पर हम फिर भी एक दिन ये जरूर करेंगे कि, अपने सपनों का भारत फिर से बनाएंगे और आकाश से जमीन तक आशाएं उतार लाएंगे।
युवा अगर ठान ले कि, उसे यह करना है तो वह करके दिखाएगा, यह भारत का विश्वास है। अब उन्हें सोचना है कि, बेरोजगार रहकर अपनी अस्मिता को खोकर, अपनी शिक्षा को अपमानित करके क्या वे अपनी जिन्दगी को अपने सपनों का आसमान दे पाएंगे। वे बेहद जीनियस हैं। सालों उन्होंने पढ़ाई की है, जिन्दगी के कई साल इसमें खर्च किए हैं। अपने आपको कल पर न्यौछावर किया है और अब जब वे कर्म क्षैत्र में उतरना चाहते हैं, अपने और परिवार का भविष्य संवारना चाहते हैं, हम उनके हाथों से वो नौकरियां छीन रहे हैं। सरकार संस्थानों को बेच रही है तो वे फिर कैसे अपने जीवन की आकांक्षाओं को पूरा कर पाएंगे। कैसी बेबसी है, कैसी निराशा है, कैसी ये विवशता है कि, अपने को जब अभिव्यक्त करने का समय आया तो पण्डाल खाली था, उसके हुनर की किसी को भी जरूरत नहीं थी क्योंकि सारी व्यवस्थाएं, सारी सुविधाएं, सारे अधिकार सरकार के पास नहीं होकर किसी और के पास गिरवी हैं।
अब कुछ बदल गया है। देश अन्दर बाहर बदल गया है। पर सब ऐसा ही रहने वाला नहीं है। भारत हमारा भाग्य विधाता है, ‘वो फिर से देश की दिशाओं को आशाओं से भर देगा और उस भाग्य विधाता के हाथ, छैनी, नजर, साक्ष्य व सौहार्द उसके देशवासी हैंÓ इन्हीं के सहारे वो पुन: पनप जाएगा। निराशाएं तिरोहित हो हवाओं में विलीन हो जाएंगी। कुरूक्षैत्र के हम सैनानी नया लाक्षागृह बनेंगे जिसे कौरव फिर कभी जला न पाएं। हम अभिमन्यु हैं, चक्रव्यूह में घुसे हैं तो फिर उसे तोड़ कर निकल भी जाएंगे, ये हमें अपने पर विश्वास है। इस महामारी, इस बेरोजगारी, इस आर्थिक तंगी और राजनीतिक परिदृश्य को हम अभिमन्यु ही तोड़ेंगे और जिन्दगी को नए आयाम हम ही देंगे।

हौसले की उड़ान भरने से पहले जमी हम नापते नहीं,
ऊंचाइयों में खोने से पहले आसमां को हम जानते नहीं।
समुद्र चाहे जितना भी विस्तार में हो,
गहराइयों से हम डरते नहीं।
कुरूक्षैत्र के इस खेल में घुसने से पहले,
कौरवों की संख्या को हम गिनते नहीं।
सुनो महाभारत हम कृष्ण के सिपाही हैं,
गीता के सार को हम भूलते नहीं।
हम योद्धा हैं हम सिर्फ लड़ते हैं,
पर कितने सिर कटे उन्हें हम भूलते नहीं।

‘शुभम्Ó!

अभिषेक लट्टा - प्रभारी संपादक मो 9351821776

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