सफलता की सीढ़ी…
शिकायत छोड़ जीवन जीना शुरू करें

 सफलता की सीढ़ी…शिकायत छोड़ जीवन जीना शुरू करें

व्यक्ति सदैव जीवन संघर्ष से जूझता रहता है। कभी मन से तो कभी मस्तिष्क से और कभी समय से जो कभी उसका साथ नहीं देता। वह लड़ता है, भिड़ता है, गिरता है, लडख़ड़ाता है लेकिन हार नहीं मानता। यह जीवन है और जीवन संघर्ष की परिभाषा भी स्पष्ट है जहां व्यक्ति जीवन युद्ध की हर दूसरी जंग जीवन संघर्ष से हारता आया है। वहां निराशा, चिढ़, ठिठकना, चीखना, चिल्लाना, कभी खुद को संभालना तो कभी पस्त हो जाना लाजमी है और थक-हार कर जीवन के समक्ष घुटने टेक देना कोई नई बात नहीं है परन्तु जीवन रूकता नहीं है वह निरंतर चलता रहता है, आपके साथ भी और आपके बाद भी।
व्यक्ति का जीवन संघर्ष से भरा है। जन्म से अंतिम सांस तक वह संघर्ष करता चला आया है, यहां तक कि, उसकी आखिरी सांस भी बिना संघर्ष के नहीं आती। एक बार यदि वह संघर्ष और जीवन की दौड़ में भाग ले लेता है तब उसका लौटना असंभव है। वह या तो कुछ बनकर या बिखर कर ही निकलता है। जहां निराशा हर दूसरे मौके पर पराजय का मैडल लिए आपके समक्ष खड़ी होती है, ऐसे में हारकर दुखी मन से शिकायत होना लाजमी है। शिकायत हो भी तो क्यों ना हो। व्यक्ति संघर्ष से भीतर से टूटता है। अपने सामथ्र्य पर, अपनी काबिलियत पर संदेह का परिणाम है शिकायत। अब प्रश्न यह उठता है कि, शिकायत हो भी तो किससे? बचपन में जब खेलते-खेलते लग जाती थी तब माता-पिता भाई बहन या फर्श को डांट लगाते थे, यह देख मन को तृप्ति होती थी और हम चुप हो जाया करते थे। कभी सोचा है क्यों? मानव मस्तिष्क को संदर्भ बिन्दु (Reference Point) की आवश्यकता होती है, कारण और अनुमान लगाने के लिए। जब व्यक्ति निराश, हताश और हारा हुआ महसूस करता है तब उसे बचपन की माता-पिता की वह बात याद आती है, कैसे हमारी चोट के संदर्भ बिन्दु (भाई-बहन, साईकिल, फर्श) को बनाकर हमारे भीतर जगे दुख, क्रोध, आक्रोश को शांत किया करते थे। उसी से नसीहत लिए हम बड़े होकर हताशा भरे जीवन में हम समय, काल, परिस्थितियों या परिजनों को संदर्भ बिन्दु बनाकर अपनी नाकामियों का कारण बताकर शिकायत दर्ज करने लगते हैं और मन ही मन स्वयं से सहानुभूति दिखाने लगते हैं तथा मस्तिष्क व ह्रदय को तसल्ली देने लगते हैं। अफसोस, यहां शिकायतें पूरी नहीं होती दिन-ब-दिन बढ़ती चली जाती हैं और हम मन व मस्तिष्क से संकुचित होने लगते हैं। अंत में हार कर परिस्थितियेां के समक्ष घुटने टेक देते हैं, पर मजाल है जो स्वयं के भीतर झांक कर अपनी कमजोरियों से रूबरू हो, हम सदैव उस मौके अथवा उस व्यक्ति की खोज में लगे रहते हैं जिसके कंधे पर हमारी नाकामियों का बोझा डालकर अपनी कमजोरियों को छुपाकर निकल जाएं।


कभी सोचा है, ऐसा क्यों है? इसका उत्तर स्पष्ट है-हम स्वयं के भीतर झांकने से डरते हैं, अपनी कमियों/सच्चाई को मानने से डरते हैं और ऐसा करें भी क्यों नहीं क्योंकि हमारे मस्तिष्क को ट्यून ही इस प्रकार किया गया है। जैसे ही मस्तिष्क व्यक्ति की कोई त्रुटि या कमी को भांपता है वह तुरंत ही सही गलत का मंथन कर उसे सुधारने में लग जाता है तब वह बिन्दु आता है जहां मन और मस्तिष्क एक दूसरे के आमने सामने हो जाते हैं और व्यक्ति कशमकश के भंवर में फंस जाता है। उसके भीतर सही गलत का सैलाब उमडऩे लगता है और मन व मस्तिष्क दो पाटों में पिसने लगता है। व्यक्ति का जीवन तनावग्रस्त हो जाता है, जीवन में भी और भीतर से भी। यह इसलिए भी क्योंकि व्यक्ति अपने कम्फर्ट जोन से बाहर आकर अपने आपको बदलना पसंद नहीं करता। अपने आपको बदलने के लिए व्यक्ति में इच्छाशक्ति की प्रचुर मात्रा चाहिए जो अक्सर कम ही मिलती है और वह अपनी सुविधानुसार तथ्यों को तोड़-मरोड़कर अपने आपको संतुष्ट कर लेता है।
सफलता की सीढ़ी चाहती है कि, आप अपने मन व मस्तिष्क में समन्वय बैठाएं, अपने आपको अपनी गलतियों को स्वीकार कर बदलने में तत्पर रहें। अपने परिजनों, समय परिस्थितियों पर दोषारोपण से बचें। इससे बेहतर है अपने आप से शिकायत करें जो आपको बदलने का मौका देगी और आप संघर्ष से घबराएंगें नहीं क्योंकि शिकायत करना समाधान नहीं अपितु समस्या को बढ़ावा
देना है।

अभिषेक लट्टा - प्रभारी संपादक मो 9351821776

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